सच्चाई आज भी - कविता
सदियों की परंपरा, रीति रिवाज़ो के बीच, बेड़ियों में जकड़े हुए, आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है, उनके लिए। इसी क़श्मक़श को दर्शाती यह कविता - उड़ा पंछी, छोड़ बचपन का रेन बसेरा, मिला उसे एक नया पिंजरा, जिंदगी की सच्चाईयों का नया चेहरा। हिम्मत और प्यार से परिपूर्ण पंछी, अपनाने की कोशिश में खुद को बदला, पिंजरे की बेड़ियों में खुद को जकड़ा। पर अनजानो के बीच, सुकून पहुँचाता हुआ, एक चेहरा अपना सा। खुशी के पल, मोती से, जिंदगी की कडियों में पिरोता हुआ, इस इम्तेहान में साथ देता हुआ, मेरा अर्ध भाग सा। समय बीता, दूसरों का मान बढ़ाने में, पंछी ने अपना स्थान छोर दिया। चुप हैं दोनों, परवरिश आड़े आयी है, लोग समाज और लाज ने, हथकड़ियां पहनाई हैं। आडंबरौ की बेड़ियों में जकङे हुए, पुरातन विचारों ने, आधुनिक सोच को हरा दिया, परतंत्र पंछी उड़ने की चाह में, पिंजरे से समझोता कर लिया। सपनों की दुनिया में अनंत तक, अगले जन्म की आस में, फिर होगा नया सवेरा ये सोच कर, पंछी ने अपने पर त्याग दिये। द्वारा अभिनव भटनागर © २०१९