प्रभु के वचन (एक कविता)

एक छोटी सी कविता, जो शायद प्रभुः के मन के भाव को दर्शाती है, की अगर वो आज के समय के मानव से कुछ कहना चाहें, तो क्या कहेंगे।



मिट्टी की मूरत , शरीर तेरा ,
मुझको अपने जैसा,बना रहा ,
भूल गया तू , कुम्हार कौन है,
परमसत्य से, बना अंजान है,

छल का चोला,ओढ़ा है,
नित नया दिखावा, करता है,
अपने मन से पूछ ज़रा ,
क्या उसने ये स्वीकारा है?

ये जगत छल है ,सिर्फ़ रैन बसेरा,
तू है पंछी , अब छोड़ घोंसला ,

भाग्य तेरा , लिखा जा चुका,
पर तू अपने कर्मो का मालिक है,
भाग रहा, तू जिस भीड़ में,
वो अंधों की दौड़ है,

चल पड़ा जो, तू मेरी ओर
सारी माया, पीछे छोड़,
जितना सोचा, ज़्यादा पाया,
फ़िर काहे की प्यास है ..

मैं तेरा , तू मेरा है,
बस इतना विश्वास कर,

अँखिया तेरी मुझको ढूंढे,
मैं तो तेरी हर साँस में,
ज्ञान चक्षु तू खोल ज़रा,
मैं  तो तेरी हर आस में। 
   


 द्वारा 
अभिनव भटनागर 
© २०१८ 



यह कविता संत कबीर दास की कविता "मोको क्या ढूंढे बन्दे " से प्रेरित है। 


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