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सच्चाई आज भी - कविता

सदियों की परंपरा, रीति रिवाज़ो के बीच, बेड़ियों में जकड़े हुए, आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है, उनके लिए। इसी क़श्मक़श को दर्शाती यह कविता - उड़ा पंछी, छोड़ बचपन का रेन बसेरा, मिला उसे एक नया पिंजरा, जिंदगी की सच्चाईयों का नया चेहरा। हिम्मत और प्यार से परिपूर्ण पंछी, अपनाने की कोशिश में खुद को बदला, पिंजरे की बेड़ियों में खुद को जकड़ा। पर अनजानो के बीच, सुकून पहुँचाता हुआ, एक चेहरा अपना सा। खुशी के पल, मोती से, जिंदगी की कडियों में पिरोता हुआ, इस इम्तेहान में साथ देता हुआ, मेरा अर्ध भाग सा। समय बीता, दूसरों का मान बढ़ाने में, पंछी ने अपना स्थान छोर दिया। चुप हैं दोनों, परवरिश आड़े आयी है, लोग समाज और लाज ने, हथकड़ियां पहनाई हैं। आडंबरौ की बेड़ियों में जकङे हुए, पुरातन विचारों ने, आधुनिक सोच को हरा दिया, परतंत्र पंछी उड़ने की चाह में, पिंजरे से समझोता कर लिया। सपनों की दुनिया में अनंत तक, अगले जन्म की आस में, फिर होगा नया सवेरा ये सोच कर, पंछी ने अपने पर त्याग दिये। द्वारा  अभिनव भटनागर  © २०१९  

जीव की जंग - कविता

जिंदगी की जुस्तजू कुछ ऐसी है, जमीर और वजूद में कश्मकश सी है।    कभी रास्ते तलाशते हुए मंज़िले मिल जाती है, कभी नियत रेत  सी फिसल जाती है। चलता हुआ किस रास्ते से, पंहुचा इस दौराहे पर मैं। एक तरफ ज़मीर है, आधार जीवन का, दूसरी ओर  वजूद, अस्तित्व जीवन का। मानो द्वन्द छिड़ा  हो,  दिल ज़मीर तो,  दिमाग वजूद हो, खड़ा देख रहा गत्यवरोध , अपने भीतर इस युद्ध को।  पाना, चाहना मनुष्य ध्येय है, क्या पाना, क्या चाहना, विवेक है। सबके ये दोराहे है, बिना सोचे चले जा रहे, उदासीन अपने मानस से है।  नहीं लड़ना मुझको ये विग्रह , मुड़े कदम, ढूंढेअन्य राह। तलाशती नज़रो ने देखा , सशक्त रास्ता धर्म का। मंत्र मुग्ध सा मैं देख रहा, धर्म खड़ा प्रकाश स्तम्भ सा. कर्म फल से परे, यह परम सार जीवन का। चल पड़ा इस राह पर मैं , धर्मसंगत कृत्य हो जीवन में। राह कठिन है, शूल भरी, पर सहाय है, प्रभु की मेरी।  द्वारा  अभिनव भटनागर  © २०१९