जो लिखा था कभी पन्नों पर, आज आया है , मेरी जुबां पर। क्यों कुछ लोग, इस जन्नत में , ता उम्र लगे रहते हैं जहन्नुम बनाने में । की ख़ुदा ने कुछ यूँ बनाई है ख़ुदाई , जो दर्द भी दे और दे सुकून भी। ये तो इंसानी फितरत है कि, ढूँढ लेता है वो फूलों में कांटे भी। कोशिश करता रहता है, इस हसीन गुलिस्तां को उजाड़ने की । शायद तुझी से कोई भूल हुई होगी, हमें बनाने में ए खुदा। वर्ना कोई वज़ह नहीं थी, अपनों का खून बहाने की। जब जानवर भी इतना समझता है, की क्या भला क्या बुरा है। तो फ़िर इंसान क्यों इतना गिर चुका है, की उसका लालच खुद से बड़ा है। जो मिला उसे दफ़ना दिया, पराये पर नियत बिगाड़ कर, अपनों को धोख़ा दे दिया। ज़िंदगी में मौके और भी आयेंगे, जब हम भी अपनों से धोखे खाएंगे। फिर भी तुझसे इल्तज़ा है खुदा। कुछ ग़लत करने से पहले मुझे, तेरी याद आए। ग़लत रास्ते पर ना बढ़े कभी मेरे क़दम, जब तू है मेरा हामी , तो ना हो कोई डर और ना कोई भरम। कॉपीराइट अभिनव भटनागर...